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Mein Aur Mein Garg, Mridula

By: Garg, MridulaLanguage: Hin Publication details: New Delhi Rajkamal Prakashan Pvt. Ltd. 2022 Edition: 2nd EditionDescription: 240p. Soft/Paper BoundISBN: 9788126725809Subject(s): Hindi -- Hindi NovelDDC classification: H891.433
Contents:
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश प्रस्तुत उपन्यास में लेखिका ने दो अपूर्व कलात्मक चरित्रों का निर्माण किया है-कौशल कुमार और माधवी। कौशल कुमार एकदम मौलिक मनुष्य है। वह जो कुछ करता है, इस विश्वास के साथ, कि समाज ने जो उसके साथ किया है, उसके चलते, उसका कुछ भी कर जाना जायज है। माधवी जानती है कि सब तरफ, बहुत कुछ गलत हो रहा है, और उसके लिए, खुद को जिम्मेवार पाती है। पर कौशल कुमार के संसर्ग में आने के बाद, वह भी मानने लगती है कि सृजन के लिए सब-कुछ जायज है। मानवीय रिश्तों का बेहिस्स इस्तेमाल भी। कौशल कुमार उसका प्रेरक भी है और शत्रु भी। माधवी जानती है, एक शत्रु उसके सामने बैठा है, दूसरा भीतर है। दोनों से निपटना है और अपने पर नैतिक नजर भी रखनी है। बड़ा जोखिम का काम है और लेखिका ने इसे बड़ी बेमुरव्वती से किया है। कौशल और माधवी के घात-प्रतिघात का अंत वही होता है जो हर युद्ध का होता है। दोनों, अपनी प्रतिभा को दाव पर लगाते हैं, और उसे सान पर चढ़ाने के चक्कर में, सर्जक ही नहीं रह पाते। सत्य से साक्षात्कार करें तो भीतर अपराधबोध पनपता है और झूठ में शरण लेने की लालसा। निजी जीवन में किये अपराध के लिए समाज को दोषी ठहरा भी लें तो समाज के अपराधों में भागीदारी से अछूते कैसे रहेंगे ? अपराध-बोध और अहम् की निरंतर चोट से आहत होकर क्या करें-कलात्मक सृजन ! सब कुछ होम करके सृजन करने का उन्माद, मानवीय संबंधों का क्रूर उपयोग करने को प्रेरित नहीं करता ? और अंततः वह सृजनशीलता को ही कुंठित नहीं कर डालता ? अंतर की समग्रता खोने पर सच और झूठ दोनों का आधार छूट नहीं जाता ? तब बचा क्या रहता है, बस आधे सच का खंडित अवलंब। ऐसे अनेक प्रश्नों से उद्वेलित मानस को खोलकर रख देने वाला अपूर्व प्रमाणिक उपन्यास ‘मैं और मैं’ पाठक को भावात्मक और वैचारिक दोनों धरातलों पर झिझोड़ता है और तमाम संबंधों पर दुबारा सोचने के लिए मजबूर करता है।
Summary: प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश प्रस्तुत उपन्यास में लेखिका ने दो अपूर्व कलात्मक चरित्रों का निर्माण किया है-कौशल कुमार और माधवी। कौशल कुमार एकदम मौलिक मनुष्य है। वह जो कुछ करता है, इस विश्वास के साथ, कि समाज ने जो उसके साथ किया है, उसके चलते, उसका कुछ भी कर जाना जायज है। माधवी जानती है कि सब तरफ, बहुत कुछ गलत हो रहा है, और उसके लिए, खुद को जिम्मेवार पाती है। पर कौशल कुमार के संसर्ग में आने के बाद, वह भी मानने लगती है कि सृजन के लिए सब-कुछ जायज है। मानवीय रिश्तों का बेहिस्स इस्तेमाल भी। कौशल कुमार उसका प्रेरक भी है और शत्रु भी। माधवी जानती है, एक शत्रु उसके सामने बैठा है, दूसरा भीतर है। दोनों से निपटना है और अपने पर नैतिक नजर भी रखनी है। बड़ा जोखिम का काम है और लेखिका ने इसे बड़ी बेमुरव्वती से किया है। कौशल और माधवी के घात-प्रतिघात का अंत वही होता है जो हर युद्ध का होता है। दोनों, अपनी प्रतिभा को दाव पर लगाते हैं, और उसे सान पर चढ़ाने के चक्कर में, सर्जक ही नहीं रह पाते। सत्य से साक्षात्कार करें तो भीतर अपराधबोध पनपता है और झूठ में शरण लेने की लालसा। निजी जीवन में किये अपराध के लिए समाज को दोषी ठहरा भी लें तो समाज के अपराधों में भागीदारी से अछूते कैसे रहेंगे ? अपराध-बोध और अहम् की निरंतर चोट से आहत होकर क्या करें-कलात्मक सृजन ! सब कुछ होम करके सृजन करने का उन्माद, मानवीय संबंधों का क्रूर उपयोग करने को प्रेरित नहीं करता ? और अंततः वह सृजनशीलता को ही कुंठित नहीं कर डालता ? अंतर की समग्रता खोने पर सच और झूठ दोनों का आधार छूट नहीं जाता ? तब बचा क्या रहता है, बस आधे सच का खंडित अवलंब। ऐसे अनेक प्रश्नों से उद्वेलित मानस को खोलकर रख देने वाला अपूर्व प्रमाणिक उपन्यास ‘मैं और मैं’ पाठक को भावात्मक और वैचारिक दोनों धरातलों पर झिझोड़ता है और तमाम संबंधों पर दुबारा सोचने के लिए मजबूर करता है।
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Item type Home library Collection Call number Materials specified Vol info Copy number Status Notes Date due Barcode
Books Books HPSMs Ganpat Parsekar College of Education, Harmal
HPS-Hindi Novels
HPS-HINDI H891.433 GAR/MEIN (Browse shelf(Opens below)) - 1 Available 8 Shelf HPS-3772

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुत उपन्यास में लेखिका ने दो अपूर्व कलात्मक चरित्रों का निर्माण किया है-कौशल कुमार और माधवी। कौशल कुमार एकदम मौलिक मनुष्य है। वह जो कुछ करता है, इस विश्वास के साथ, कि समाज ने जो उसके साथ किया है, उसके चलते, उसका कुछ भी कर जाना जायज है। माधवी जानती है कि सब तरफ, बहुत कुछ गलत हो रहा है, और उसके लिए, खुद को जिम्मेवार पाती है। पर कौशल कुमार के संसर्ग में आने के बाद, वह भी मानने लगती है कि सृजन के लिए सब-कुछ जायज है। मानवीय रिश्तों का बेहिस्स इस्तेमाल भी। कौशल कुमार उसका प्रेरक भी है और शत्रु भी।

माधवी जानती है, एक शत्रु उसके सामने बैठा है, दूसरा भीतर है। दोनों से निपटना है और अपने पर नैतिक नजर भी रखनी है। बड़ा जोखिम का काम है और लेखिका ने इसे बड़ी बेमुरव्वती से किया है। कौशल और माधवी के घात-प्रतिघात का अंत वही होता है जो हर युद्ध का होता है। दोनों, अपनी प्रतिभा को दाव पर लगाते हैं, और उसे सान पर चढ़ाने के चक्कर में, सर्जक ही नहीं रह पाते।


सत्य से साक्षात्कार करें तो भीतर अपराधबोध पनपता है और झूठ में शरण लेने की लालसा। निजी जीवन में किये अपराध के लिए समाज को दोषी ठहरा भी लें तो समाज के अपराधों में भागीदारी से अछूते कैसे रहेंगे ? अपराध-बोध और अहम् की निरंतर चोट से आहत होकर क्या करें-कलात्मक सृजन ! सब कुछ होम करके सृजन करने का उन्माद, मानवीय संबंधों का क्रूर उपयोग करने को प्रेरित नहीं करता ? और अंततः वह सृजनशीलता को ही कुंठित नहीं कर डालता ? अंतर की समग्रता खोने पर सच और झूठ दोनों का आधार छूट नहीं जाता ? तब बचा क्या रहता है, बस आधे सच का खंडित अवलंब।

ऐसे अनेक प्रश्नों से उद्वेलित मानस को खोलकर रख देने वाला अपूर्व प्रमाणिक उपन्यास ‘मैं और मैं’ पाठक को भावात्मक और वैचारिक दोनों धरातलों पर झिझोड़ता है और तमाम संबंधों पर दुबारा सोचने के लिए मजबूर करता है।

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुत उपन्यास में लेखिका ने दो अपूर्व कलात्मक चरित्रों का निर्माण किया है-कौशल कुमार और माधवी। कौशल कुमार एकदम मौलिक मनुष्य है। वह जो कुछ करता है, इस विश्वास के साथ, कि समाज ने जो उसके साथ किया है, उसके चलते, उसका कुछ भी कर जाना जायज है। माधवी जानती है कि सब तरफ, बहुत कुछ गलत हो रहा है, और उसके लिए, खुद को जिम्मेवार पाती है। पर कौशल कुमार के संसर्ग में आने के बाद, वह भी मानने लगती है कि सृजन के लिए सब-कुछ जायज है। मानवीय रिश्तों का बेहिस्स इस्तेमाल भी। कौशल कुमार उसका प्रेरक भी है और शत्रु भी।

माधवी जानती है, एक शत्रु उसके सामने बैठा है, दूसरा भीतर है। दोनों से निपटना है और अपने पर नैतिक नजर भी रखनी है। बड़ा जोखिम का काम है और लेखिका ने इसे बड़ी बेमुरव्वती से किया है। कौशल और माधवी के घात-प्रतिघात का अंत वही होता है जो हर युद्ध का होता है। दोनों, अपनी प्रतिभा को दाव पर लगाते हैं, और उसे सान पर चढ़ाने के चक्कर में, सर्जक ही नहीं रह पाते।


सत्य से साक्षात्कार करें तो भीतर अपराधबोध पनपता है और झूठ में शरण लेने की लालसा। निजी जीवन में किये अपराध के लिए समाज को दोषी ठहरा भी लें तो समाज के अपराधों में भागीदारी से अछूते कैसे रहेंगे ? अपराध-बोध और अहम् की निरंतर चोट से आहत होकर क्या करें-कलात्मक सृजन ! सब कुछ होम करके सृजन करने का उन्माद, मानवीय संबंधों का क्रूर उपयोग करने को प्रेरित नहीं करता ? और अंततः वह सृजनशीलता को ही कुंठित नहीं कर डालता ? अंतर की समग्रता खोने पर सच और झूठ दोनों का आधार छूट नहीं जाता ? तब बचा क्या रहता है, बस आधे सच का खंडित अवलंब।

ऐसे अनेक प्रश्नों से उद्वेलित मानस को खोलकर रख देने वाला अपूर्व प्रमाणिक उपन्यास ‘मैं और मैं’ पाठक को भावात्मक और वैचारिक दोनों धरातलों पर झिझोड़ता है और तमाम संबंधों पर दुबारा सोचने के लिए मजबूर करता है।

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